Wednesday, 6 January 2016

कहीं दूर जब दिन ढल जाए.


कहीं दूर जब दिन ढल जाए...


कहीं दूर जब दिन ढल जाए
साँझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आए
मेरे ख़यालों के आँगन में, कोई सपनों के दीप जलाए


कभी यूँ ही जब हुई बोझल साँसे
भर आई बैठे बैठे जब यूँ ही आँखे
तभी मचल के, प्यार से चल के
छूए कोई मुझे पर नज़र ना आए, नज़र ना आए

कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते
कहीं से निकल आये जनमों के नाते
है मीठी उलझन बैरी अपना मन
अपना ही हो के सहे दर्द पराए, दर्द पराए

दिल जाने मेरे सारे भेद ये गहरे 
खो गये कैसे मेरे सपने सुनहरे 
ये मेरे सपने यही तो हैं अपने 
मुझसे जुदा न होंगे इनके ये साये

कहीं दूर जब दिन ढल जाए
साँझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आए
मेरे ख़यालों के आँगन में, कोई सपनों के दीप जलाए

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